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श्री पीतांबरा पीठ : मंत्र और तंत्र का अनुसंधान केंद्र

सौवर्णासन-संस्थितां त्रि-नयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभाङ्ग-रुचिं शशाङ्क-मुकुटां स्त्रक्-चम्पक-स्त्रग्-युताम् ।


हस्तैर्मुद्गर – पाश – वज्र रसनां संविभ्रतीं भूषणै
व्र्व्याप्ताङ्गीं बगला-मुखीं त्रि-जगतां संस्तम्भिनीं चिन्तये ।।

प्राचीन दतिया के बाहर श्मशान और तालाब के दक्षिणी किनारे मेँ विराजमान वन खंडेश्वर महादेव हजारों वर्षों से समाधिस्थ हैं । जनश्रुति के अनुसार यह महाभारत कालीन अश्वत्थामा द्वारा पूजित शिवलिंग पंचमुंडी आसन पर विराजमान है । महादेव यहां अपने पुत्र गणेश, कार्तिकेय, जगतपोषिता अन्नपूर्णा एवं नंदी के साथ विराजमान हैं। यह स्थान महाभारत काल से ही सिद्ध महात्माओं की तपोस्थली रहा है ।अपने समय के महान तांत्रिक शंकर ओझा ने यही प्रसिद्धि प्राप्त की थी । जिनकी समाधि आज भी वसुंधरा राजे की कुटिया के पश्चिमी ओर है ।संस्कृत के विद्वानों में श्रेष्ठ शताब्दी के महान विद्वान अयोध्या सिंह उपाध्याय ने यहीं आकर तपस्या की और एक घड़ी अर्थात 24 मिनट में 100 आशु श्लोकों का निर्माण करने की क्षमता प्राप्त की। इसी के चलते उन्हें घटिका शतक की उपाधि दी गई । दतिया का वनखंडी स्थान सदैव से वाममार्गी तांत्रिकों के लिए प्रिय स्थल रहा है । स्वामी जी को यहां आकर अनुभव हो गया था कि यह सिद्ध स्थली है और उनकी साधना के लिए उपयुक्त स्थान भी ।

पूज्य पाद श्री स्वामी जी द्वारा भगवती पीतांबरा माई की स्थापना 1935 में की गई तभी से यह आश्रम श्री पीतांबरा पीठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह मंदिर श्री पीतांबरा पीठ राजनीति की देवी बगलामुखी / पीतांबरा देवी का मंदिर है ।यह आम मंदिर नहीं असल में यह साधना स्थली है , यह तंत्र पीठ है। आज के समय में तंत्र का स्वरूप क्या है ?यह देखना हो तो श्री पीतांबरा पीठ जरूर जाना चाहिए। पीतांबरा पीठ जो पहले बनखंडी नाम से जाना जाता था वह आज श्री पीतांबरा पीठ के नाम से सुप्रसिद्ध है ।

पीठ का जो आज स्वरूप देखने को मिलता है वह पूर्व में ऐसा नहीं था जैसा कि नाम से पता चलता है यह स्थान वनों से गिरा हुआ प्राचीन दतिया के बाहर निर्जन स्थान था यहां आज जहां पीतांबरा माई का गर्भ ग्रह है उतनी ही सीमा में वहां एक कच्ची कोठरी हुआ करती थी जिसके ऊपर खपरैल तथा उत्तर की ओर द्वार था जब स्वामी जी यहां पधारे तो इसकी अवस्था जर्जर थी बाद में से लीप कर बैठने रहने योग्य बनाया इसी कोठरी में स्वामी जी ने अपनी साधना आरंभ की । जहाँ स्वामी जी महाराज ने अपनी साधना प्रारंभ की आज उसी कुटिया ने पीतांबरा माई के गर्भ ग्रह का रूप धारण कर लिया है। इसके अंदर ही स्वामी जी की बगिया व श्रीमाई व महाराज जी का कक्ष , रसोई इत्यादि है। स्वामी जी महाराज ने पीतांबरा माई की स्थापना के बाद वनखंडेश्वर महादेव के प्रांगण में महादेव के षडा़म्नाओं (शिव के 6 स्वरूप) की स्थापना कराई। भगवान शिव का एक स्वरूप ऊपरी मंजिल पर है। इस प्रांगण में हनुमान जी, गणेश जी आदि देवों की प्रतिमा स्थापित है।

पीतांबरा माई की पूजन पद्धति स्वामी जी के द्वारा प्रदत्त तांत्रिक विधि विधान से ही है जो आज भी अनवरत रूप से चल रही है। स्वामी जी के द्वारा अनेक साधकों , भक्तों को पीतांबरा माई की साधना मार्ग में दीक्षा प्राप्त हुई। स्वामी जी के द्वारा निर्मित ‘बगलामुखी रहस्यम’ नामक ग्रंथ अब तक का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ कहा जा सकता है । जिसमें श्री पीतांबरा के विषय गत सब कुछ सम्यक रूप से प्राप्त हो जाता है । इस ग्रंथ को देश व विदेश के साधकों विद्जनों के द्वारा आदर प्राप्त हुआ।

श्री पीतांबरा माई का आज जो स्वरूप हमारे सामने प्रचलित है उस विग्रह के पीछे भी अनेक कहानी हैं ।सर्वप्रथम माई के स्वरूप के लिए स्वामी जी के एक शिष्य द्वारा उनका चित्र बनाया गया । चित्रकार का नाम स्वामी जी की स्वीकृति के पश्चात इस चित्र को जयपुर के मूर्तिकार के पास भेजा गया । वह मूर्तिकार अनेक प्रयत्नों के पश्चात भी चित्र में प्रस्तुत मूर्ति बनाने में सफल नहीं हो पाया तो स्वामी जी को संदेश भेजा गया। प्रत्युत्तर में स्वामी जी के द्वारा उसे निर्देश प्राप्त हुआ कि वह उपवास करके मूर्ति बनाएं। स्वामी जी की कथनानुसार उस मुस्लिम मूर्तिकार ने व उसके परिवार ने जब तक विग्रह का निर्माण नहीं हुआ तब तक उन सभी ने उपवास रखा ।

आदि गुरु श्री शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद मत के सन्यासी दंडधारी श्री स्वामी जी महाराज किस प्रकार से तंत्र और शाक्त परंपरा का उद्धार करने के लिए दतिया पधारे यह एक लंबी गाथा है, जिसे जानने के लिए पाठकों को श्री पीतांबरा पीठ आना होगा। गुरुतत्व की असीम सत्ता को जानने से पूर्व मन में श्रद्धा और विश्वास भी आवश्यक है। यूँ तो स्वामी जी ने कभी अपने परिवार,प्रारम्भिक जीवन का उल्लेख कहीं नहीं किया, किंतु यदा-कदा वह अपने भक्तों और शिष्यों से कुछ – कुछ बातें कहते रहे । उन्हीं के आधार पर उनके शिष्यों ने उनका जीवन चरित गढ़ा। इन बातों के कहीं साक्ष्य या प्रमाण तो नहीं किंतु गुरु-शिष्य परंपरा का विश्वास अवश्य है। शिव पुराण में कहा गया है -‘प्रतिज्ञा, हेतु ,उदाहरण ,उपमेय ,निगमन आदि पांच अवयवों से युक्त वाक्य प्रमाणित होता है।

हमारे स्वामी जी ने भारतीय साधना, भारतीय जीवन- मूल्य ,भारतीय विद्या के प्रचार में ही अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनके मार्गदर्शन में सैकड़ों छात्र व साधकों ने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। आपने दतिया में राष्ट्रीय रक्षा यज्ञ अथवा अन्य वैदिक यज्ञ, अनुष्ठान , विलक्षण देव मूर्तियों की प्रतिष्ठा, साधकाआवास तथा यज्ञशाला का निर्माण, पीतांबरा संस्कृत परिषद की स्थापना ,अमूल्य साधना परक साहित्य का प्रकाशन ,भारतीय योग विद्या का प्रायोगिक प्रशिक्षण ,ज्योतिष विद्याओं का शिक्षण, तांत्रिक पंचांग का मुद्रा, उपनयन आदि वैदिक संस्कारों का प्रचार कार्य कर अपनी साधना के द्वारा पीतांबरा पीठ को विश्वव्यापी स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया।

श्री पीतांबरा पीठ ब्रह्मांड के तीनों तत्त्वों सत्व , रज और तम की शक्तियों का एक ही स्थान है। विश्व में इस तरह का केवल एक ही स्थान है मिर्जापुर के पास विंध्याचल देवी का मंदिर यहां भी देवी तीनों तत्वों में विराजमान है। श्री पीतांबरा पीठ में माता बगलामुखी, श्री माई और धूमावती स्वरूप में विश्व संचालन की शक्तियां विराजमान है।

भगवती बगलामुखी दक्षिणाम्नाय और उत्तराम्नाय दोनों की उपास्या देखी है। इनकी उपासना वाममार्ग और दक्षिणमार्ग दोनों में स्वीकृत तथा प्रचलित भी है। वे तैंतीस कोटि देवताओं में से कोई व्यक्तिगत देवता नहीं हैं। ये सर्वशक्तिरुपम सर्वरूपा, सर्वाकार और पराशक्ति हैं, इसलिए ये भैरवी, मातङ्गी, त्रिपुरा, कामसी, श्रीविद्या, भद्रकाली आदि सब कुछ हैं। ये परब्रह्मरूपा परब्रह्ममहेश्वरी’। भगवती बगलामुखी एकरूपा नहीं हैं प्रत्युत बहुरूपिणी हैं-‘ब्रह्मरूपा विष्णुरुया अनन्तस्वरूपा वेदविद्या विरूपाक्षी विश्वयुक् बहुरूपिणी’ यही कारण है कि वे अनन्तस्वरूपा हैं।

व्याकरणशास्त्र के अनुसार इनके नाम की व्युत्पत्ति इस प्रकार ये है है कि इनके ‘वलगो वृणोते:’ में ‘वृण आच्छादने’ धातु से वलग शब्द निष्पन्न होता है। तन्त्रशाम्य इसी शक्ति को बगलामुखी के नाम से सम्बोधित करता है। भगवती बगलामुखी का आविर्भाव-काल ‘वीररात्रि’ की चतुर्थसन्ध्या है। इनका आविर्भाव अर्द्धरात्रि के समय हुआ है। वैसे भी भगवती बगलामुखी इस कलिकाल में सद्यः फलप्रदा मानी जाती है और इनकी उपासनाकरने से मनोवांछित कामनाएँ पूर्ण होती हैं। इनकी उपासना तीन प्रकार से की जा सकती है-(१) सात्त्विक, (२) राजसी, (३) तामसी। परन्तु गृहस्थ के लिए इनकी सात्त्विक उपासना करना ही श्रेयस्कर होगा। क्योंकि वेद भी सात्त्विक पूजा को ही प्रधानता देता है। सात्त्विक पूजा में मद्य और पशुबलि का पूर्णत: निषेध है।

यह वही शक्ति है, जिसके विषय में भगवान् शंकराचार्य कहते हैं कि उसकी सहायता के विना पञ्चक्रियाकर्ता परमेश्वर शिव पञ्चक्रियायें करना तो दूर; हिल भी नहीं सकते –

शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि।

पूज्य पाद श्री स्वामी जी के द्वारा स्कूल की अधिष्ठात्री राजराजेश्वरी ललितंबिका श्रीमाई को आश्रम में बगलामुखी माई के भीतर की ओर वाले कक्ष में यंत्र के रूप में 1954 में स्थापित किया गया। यह एक छोटा लाल रंग का कक्ष है । जिसमें यंत्र राज( श्री यंत्र )चांदी के बने हुए । चक्र की पूजा स्वामी जी द्वारा प्रदत्त तांत्रिक विधान से ही होती हैं।और इसके पुजारी भी लाल वस्त्र पहनते हैं। इस यंत्र की दर्शन की अनुमति सभी को नहीं है , केवल शास्त्रोक्त विधि से दीक्षित कुछ पंडित ही उस कक्ष में जा सकते हैं । श्री चक्र का महत्व सभी को पता है । श्रीमाई की पूजा करने से लौकिक और भौतिक सभी ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। भौतिक सुखों व मोक्ष की प्राप्ति भी श्री चक्र की अर्चन से होती है। स्वामी जी के द्वारा ‘चिदविलास’ नामक ग्रंथ भी श्री की उपासना के लिए लिखी गयी। सामान्य शब्दों में लक्ष्मी जी श्रीमाई का ही एक स्वरूप है।

श्री विद्या का स्वरूप
आगम शास्त्र में अनंत तेजो राशिमयी अखिल ब्रम्हांड नायिका श्रीविद्या ही प्रधान रूप से विराजमान है। आगम-निगम का समस्त वांग्मय इन्हीं की अराधना में संलग्न है।

श्री पीतांबरा पीठ पर स्वामी जी द्वारा धूमावती देवी की स्थापना 1978 में कराई गई । यह प्रतिमा भी जयपुर के कारीगर द्वारा बनाई गई थी। वनखंडी के दक्षिण और श्री सरस्वती मंदिर के सामने धूमावती माई का मंदिर स्थापित है । यह मंदिर स्वामी जी के समय शनिवार को दर्शन के लिए में एक बार 1 घंटे के लिए ही खुला करता था ।
यह अत्यंत उग्र देवी हैं । विपत्ति नाश ,शत्रु नाश, युद्ध जय, विद्वेषण, उच्चाटन ,मारण ,घोर विपत्ति, महा रोग निवारण, शत्रु उच्चाटन, मारण-मोहन आदि उपकरणों में इस महाशक्ति का प्रयोग सद्यसिद्धि प्रद है। इस महाशक्ति के द्वारा विश्व का उच्चाटन किया जा सकता है।

सन् 1962 राष्ट्रीय रक्षा हेतु अनुष्ठान

सन् 1962 ई.में चीन की ओर से भारत पर आक्रमण हुआ।इस कारण स्वामी जी महाराज का चिंतित होना स्वाभाविक था। वे सदैव अपने शिष्यों को राष्ट्रहित लोकहित का पाठ पढ़ाते रहे । ऐसे में देश पर आये भारी संकट को कैसे देख पाते ? महाराज श्री ने झांसी के वैद्य श्री राम नारायण शर्मा जी से कहा ‘साधु शस्त्र लेकर तो नहीं लड़ सकते पर जगदंबा से प्रार्थना रूप अनुष्ठान अवश्य कर सकते हैं । इसके लिए 100 पंडितों की आवश्यकता होगी ,ऐसे पंडित जो नित्य दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हो और अपने भजन का विक्रय ना करते हो तथा शक्ति मंत्र में दीक्षित हो।’ श्री राम नारायण शर्मा जी इस हेतु काशी और विंध्याचल गए, नागपुर आदि भी कई जगह पत्र व्यवहार के माध्यम से पंडितों की व्यवस्था की गई किंतु कुल 85 पंडित ही समय पर उपलब्ध हो सके । कुल पंडितों में से स्वामी जी के 35 शिष्य थे जो नित्य सप्तशती का पाठ किया करते थे । काशी से पंडित केदारनाथ ने जयपुर, मथुरा ,नागपुर, पटना आदि के ब्राह्मणों के साथ मिलकर मुहूर्त अनुसार 28/12/1962 को स्वामी जी द्वारा प्रदत्त संकल्प लेकर अनुष्ठान प्रारंभ किया। 85 ब्राह्मण दिन में सप्तशती का पाठ संपुट सहित किया करते। इस अनुष्ठान में भगवती पीतांबरा की आराधना शत्रुओं के स्तंभन के लिए दिन में और रात्रि में भगवती के धूमावती स्वरूप की आराधना शत्रु उच्चाटन एवं नाश के लिए की गई । रात्रि का अनुष्ठान स्वामी जी के शिष्यों द्वारा ही किया गया। इस अनुष्ठान के समय मंदिर पर किसी बाहरी को आने की अनुमति नहीं थी ।यह अनुष्ठान निर्विघ्न 31 दिन तक चला पूर्णाहूति के दिन ही चीन की सेना ने पलायन कर लिया । इस खुशखबरी के सूचना व अनुष्ठान की सफलता का चर्चा इलूस्टेड वीकली में चित्रों सहित पूरे एक पृष्ठ(19) पर chiaroscuro शीर्षक के साथ छपा।

श्री पीतांबरा पीठ मंत्र और तंत्र का अनुसंधान केंद्र है यहां बड़े बड़े पदों पर आसीन राजनेताओं का ताता लगा रहता हैं।मंत्रों की शक्ति का साक्षात यहां दिखाई देती हैं।यह साधना का वो स्थान है जहां हजारों वर्षों से अनवरत रूप से तपस्या का क्रम चलता आ रहा है।

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