वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि ।
मङ्गलानां च कत्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ।।
ब्रह्मा की शक्ति, तप और ज्ञान प्रदायिनी ,बह्मज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती का मैं प्रणाम करती हूँ । शास्त्रों में गणेशजननी दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री ये पाँच देवीयाँ सृष्टि में की प्रकृति कही गई हैं।
सरस्वति शब्द की व्युत्पत्ति सृ के आगे असुन् प्रत्य लगाने से सरस् पद सिद्ध होता है । सरस की आधिदात्री देवी सरस्वती है । सृ का अर्थ है गति। जिस मनुष्य के पास सरस्वती न हो वह उसी प्रकार से हो जाता है, जिस प्रकार से हंसों के मध्य में बगुला । वह मनुष्य के रूप में हिरन के समान होकर इस पृथ्वी पर विचरण करता है।
इनका आविर्भाव बसंत पंचमी को कहा गया इसी तिथि में ब्रह्मा जी के तप से सृष्टि निर्माण के ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए माता सरस्वती प्रकट हुई वस्तुतः मूल रूप से यह ब्रह्म विद्या हैं जो निवृत्ति मूलक है । यही प्रवृत्ति मार्ग में वाणी,शारदा, स्वरूपिणी, गायत्री से विश्व पोषिता हैं। इनका स्थान सुषुम्ना नाड़ी में होने से यह चिदग्नितत्व की मुख्य देवता है । योगी इनका स्थान आज्ञा चक्र पर भी बताते हैं।
माघ शुक्ल पञ्चमी को अनध्याय भी कहा गया है।भगवती सरस्वती की प्रत्येक ब्रह्माण्ड में माघ शुक्ल पञ्चमी तिथि को विद्यारम्भ के अवसर पर मनुष्य, मनुगण, देवता, मुनीन्द्र, मुमुक्षु जन, वसु, योगी, सिद्ध, नाग, गन्धर्व और राक्षस – प्रत्येक कल्प में षोडशोपचार – पूजा अर्चना करते हैं। भगवती सरस्वती की सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण ने पूजा की थी।
पुस्तक और लेखनी (कलम) में देवी सरस्वती का निवास स्थान माना जाता है।भगवती सरस्वती की उत्पत्ति सत्त्वगुण से हुई है। इनकी आराधना एवं पूजा में प्रयुक्त होने वाली उपचार – सामग्रियों में अधिकांश श्वेत वर्ण की होती है।जैसे – दूध, दही, मक्खन, धान का लावा (खील), सफेद तिल का लड्डू, गन्ना एवं गन्ने का रस, पका हुआ गुड़, शहद, श्वेत चन्दन, श्वेत पुष्प, श्वेत परिधान, श्वेत अलंकार (चॉंदी से निर्मित), खोवे का श्वेत मिष्ठान, अदरक, मूली, शर्करा, श्वेत धान्य के अक्षत, तण्डुल, शुक्ल मोदक, घृत, सैन्धव युक्त हविष्यान्न, यवचूर्ण या गोधूम चूर्ण का घृत संयुक्त पिष्टक, पके हुए केले की फली का पिष्टक, नारियल, नारियल का जल, बद्रीफल, ऋतुकाल के पुष्प आदि।
वसंत पञ्चमी, श्री पञ्चमी, तक्षक पूजा, वागेश्वरी (सरस्वती) जयन्ती के दिन बालकों के अक्षरारम्भ एवं विद्यारम्भ सरस्वती देवी की पूजा कर करना चाहिए।वसंत पञ्चमी के दिन कामदेव और रति का भी पूजन होता है। सरस्वती देवी की पूजा व्यक्तिगत रूप से करने का ही विधान है, सार्वजनिक रूप से नहीं। सरस्वती रहस्योपनिषद्, प्रपञ्चसार तथा शारदा तिलक आदि ग्रन्थों में भगवती सरस्वती के दिव्य स्वरूप तथा उनकी उपासना का विस्तृत वर्णन है।उक्त ग्रन्थों में देवी सरस्वती के व्रत, उपवास सम्बन्धी अनेक मन्त्र, यन्त्र, स्तोत्र, पटल तथा पद्धतियॉं उल्लिखित है।संवत्सर प्रदीप, श्रीमद् देवी भागवत, श्रीदुर्गा सप्तशती तथा ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में सरस्वती – पूजन की विधि स्पष्ट रूप से उल्लिखित है।
सरस्वती मन्त्र भगवान नारायण ने गङ्गा तट पर बाल्मीकि जी को, शिवजी ने कणाद मुनि और गौतम ऋषि को, ब्रह्माजी ने भृगु को, भृगु ऋषि ने शुक्राचार्य को, जरत्कारु मुनि ने आस्तिक मुनि को, विभाण्डक मुनि ने श्रृष्यश्रृङ्ग को, सूर्य देव ने याज्ञवल्क्य तथा कात्यायन को, शेषनाग ने भारद्वाज और शाकटायन ऋषि को दिया था। विधिवत 4 लाख जप करने से इसका मन्त्र सिद्ध हो जाता है। ब्रह्माजी ने गन्धमादन पर्वत पर विश्व पर विजय प्राप्त कराने वाला सरस्वती कवच भी भृगु ऋषि को प्रदान किया था।विश्व विजय नामक सरस्वती कवच साक्षात् ब्रह्मस्वरुप है। 5 लाख जप कर लेने से यह कवच सिद्ध हो जाता है।कण्व शाखा के अन्तर्गत वर्णित यह सरस्वती कवच श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के पॉंचवें अध्याय में उल्लिखित है।याज्ञवल्क्य द्वारा रचित सरस्वती स्तोत्र का विधि – विधान से पाठ करने वाला व्यक्ति एक वर्ष में पण्डित, मेधावी तथा श्रेष्ठ कवि हो जाता है।
तुसली दास जी ने रामचरितमानस जी में माता सरस्वती को एक महत्वपूर्ण देवी के रूप में अभिव्यक्त किया है क्योंकि पूरी कथा में जब-जब कुछ अच्छा या बड़ा होना होता है तब तब माता शारदा स्वयं उसे पत्र की बुद्धि फेर कर उसका प्रारब्ध सिद्ध करती हैं। मन्थरा को अपयश की पिटारी बनाना हो अथवा कुंभकरण के द्वारा गलत वरदान मांगना सब मां शारदा की ही कृपा से संभव हो पाया। तुलसीदास जी ने अयोध्या कांड में श्रीराम का राजतिलक होने से पहले लिखा है कि –
नामू मंथरा मंदमति, चेरी कैकइ केरि।
अजस पिटारी ताहि करि, गई गिरा माटी फेरि।।
माता सरस्वती की वंदना करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि-
पुनि बंदौ सा सुर सरिता,जुगल पुनीत मनोहर चरिता।
मज्जन पान पाप हर एका, कहत सुनत एक हर अविवेका ।
तुलसीदास जी माँ गंगा और सरस्वती की वन्दना करते हुये कहते हैं एक में स्नान करने से और दूसरे के कहने सुनने से मनुष्य अविवेक रहित हो जाता है। अर्थात मनुष्य को अपने कल्याण के लिए मां गंगा के तट पर जाकर उसमें स्नान करना होगा किंतु मां सरस्वती रूपी नदी में केवल हरि कहने और सुनने से ही आत्म कल्याण हो जाएगा। असल में ब्रह्मलोक से आई सरस्वती की थकावट दूर करने का उपाय हरि नाम है या यूं कहें कि बुद्धिमान लोगों के हृदय में मां सरस्वती स्वाति नक्षत्र के समान है जो राम नाम के मोती की माला से विद्वान भक्तों के हृदय को शोभा प्रदान करती हैं।
सुन्दर काण्ड में एक प्रसंग आता है कि
बचन सुनत कपिगन मुसकाना। ,भइ सहाय सारद मैं जाना ।
जातुधान सुनि रावन बचना । लागे रचेमूठ सोइ रचना।।
ऋग्वेद में कहा गया – ‘प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामनित्रयवतु’ सबके स्वाधिष्ठान चक्र में ब्रह्मदेव का वास है, वही बह्मभवन है। परावाणी वहीं पर मूलाधार में रहती है। वहाँ से जब यह नाभिदेश की प्राप्त होती है,तब इनका नाम पश्यन्ती होता है। जब यह हृदय देश में अवस्थान करती है, तब इनका नाम मध्यमा पड़ता है। और जब कण्ठ, ताल्वादि स्थान में आकर वर्णरूप से अभिव्यक्ति होती है तब इनका नाम बैखरी पड़ता है। वैखरी वाक् को ही अर्थबोधन का सामर्थ्य है। इसी के द्वारा अपना मनोगत भाव दूसरे को बतलाया जाता है। परा, पश्यन्ती ,मध्यमा और बैखरी यथाक्रम वाणी की सूक्ष्मत्तर, सूक्ष्म, सूक्ष्मतम और स्थूल अवस्थाएँ हैं। सूक्ष्मतम् अवस्था से स्थूल अवस्था में आना ही वाणी का ब्रह्म भवन से इस जगत में आना है।
सरस्वती परमचेतना हैं सरस्वती के रूप में हमारी बुद्धि, प्रज्ञा ,मनोवृत्ति की संरक्षिका है। जैन और बौद्ध धर्म में भी इनकी उपासना होती है। जापान में बेजाइतेन नाम से इनकी उपासना होती है। वर्मा, चीन, थाईलेण्ड , इण्डोनेशिया में भी इनके विभिन्न रूपों की पूजा होती है।