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कुंभ : सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महापर्व

सनातन सिद्धान्त के अनुसार परब्रह्म, परमात्मा, अखण्ड, अनन्त है। वह ईश्वर, भगवान् आदि नामों से कहा जाता है। उसे प्राप्त करना परम पुरुषार्थ है। इस पुरुषार्थ की प्राप्ति हेतु अनेक विधान है जैसे तीर्थ-यात्रा, व्रत, गंगा-स्नान , दान आदि । किन्तु इन सब से अधिक माहात्म्य ‘कुम्भ-महापर्व’ का है।

“कुंभ” शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसका अर्थ है “घड़ा” या “कलश” (अमृत कलश)। यह प्रतीकात्मक रूप से पवित्रता, ज्ञान, और अमरत्व का प्रतीक है।’कुम्भ’ का एक और अर्थ है- “कुं-कुत्सितम्, उम्भति दूरयति” यानी जो कृत्सित – पापमय कुविचारों को दूर करे, वह ‘कुम्भ-पर्व’ है कुंभ स्नान को मनुष्य के पापों का नाश करने और उसे मोक्ष प्रदान करने वाला माना गया है।”कुम्भ” जो कुविचारों को दूर करे, वही कुम्भ महापर्व है।

‘कुम्भ-महापर्व’ के स्नान से, पाप-ताप, दुःख-निवृत्ति तथा ईश्वर को प्राप्त करने की योग्यता आती है। ।कुंभ का महत्व केवल स्नान के लिए ही नहीं बल्कि मानव जीवन को परिमार्जीत करने की क्षमता रखता है यह स्नान विशेष समय में विशेष स्थान पर विशेष स्नान का नाम ही कुंभ है।

‘कुम्भ-महापर्व’ अनादि और ऐतिहासिक है। सृष्टि के आदि में सृष्टि-कर्ता भगवान् ब्रह्मा ने कश्यप, दक्ष आदि को मन के संकल्प से उत्पन्न किया । इन मानसिक पुत्रों से कहा- ‘तुम लोग सृष्टि की वृद्धि करो’ । दक्ष प्रजापति के अनेक कन्यायें थीं। उन्होंने कश्यप आंदि प्रजापति के साथ उनका विवाह कर दिया। कश्यप के दिति. तंथा अदिति नाम की पत्नी थीं। दिति से दैत्य उत्पन्न हुये और अदिति से देवता । देवताओं को स्वर्ग का स्वामी और दैत्यों को पाताल का स्वामी बनाया । इससे दैत्य प्रसन्न न हुये, वह स्वर्ग का राज्य चाहते थे । दैत्यों ने तपस्या और भौतिक बल-एकत्रित कर, देवताओं से स्वर्ग का राज्य छीन लिया। देवता राज्य-भ्रष्ट होगये । वह भगवान् विष्णु की शरण-गये। भगवान् ने उन्हें उपाय बतलाया कि “दैत्यों से सन्धि करो और उन्हें साथ लेकर ‘अमृत’ के लिये समुद्र-मंथन करो” । देवताओं ने यही किया। दैत्य समुद्र-मंथन के लिये तैयार हो गये । सुमेरु पर्वत की मथानी और वासुकि नाग की रस्सी बनाई गई । स्वयं भगवान् कच्छप-रूप धारण कर, समुद्र में अपनी पीठ पर सुमेरु पर्वत को धारण किये थे। समुद्र-मंथन से अनेक वस्तुएं निकलीं। उन्हें देवता और दैत्य लेते गये। फिर ‘अमृत-कुम्भ’ निकला । उसे देवता-दैत्य दोनों लेना चाहते थे। इस पर दोनों में विवाद हो गया। ‘कोई अमृत-कुम्भ’ लेता, उससे दूसरा छीनता ।

इस प्रकार बारह दिव्य दिनों तक छीना-झपटी होती रही। देवताओं का एक दिन, मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है। अतः यह विवाद बारह वर्ष तक चला। कश्यप-पुत्रं देव-दानवों में ‘अमृत-कलश’ के विवाद में, जहाँ-जहाँ भूमि पर कलश रखा गया, वहाँ-वहाँ ‘कुम्भ-पर्व होता है ।देव-दानवों के युद्ध से ‘अमृत-कुम्भ’ की रक्षा चन्द्र, सूर्य, वृहस्पति और भगवान् विष्णु ने की यानी अमृत भूमि में गिर न पड़े, इसकी रक्षा चन्द्र ने की, कुम्भ के फूटने की रक्षा सूर्य ने की, दैत्यों से रक्षा गुरु मे और इन्द्र पुत्र जयन्त से रक्षा भगवान् ने की।

जब भूमि में ‘सुधा कुम्भ’ गिरा था, उस समय एक राशि में यानी जिस-ज़िस राशि में सूर्य, चन्द्र तथा गुरु का संयोगः था, उसी प्रकार जिस वर्ष में यह योग होता है, तब कुम्भ-पर्व होता. है, अन्य वर्ष में नहीं।देवों के बारह दिन के समान मनुष्यों के बारह वर्ष होते हैं । इसलिये ‘कुम्भ- पर्व’ भी बारह संख्या वाले होते हैं। उन बारह ‘कुम्भ-पर्व’ में प्रथम चार कुम्भ-पर्व मनुष्यों के पाप-नाश के लिये भारत-भूमि में होते हैं और आठ अन्य लोकों में कहे गये हैं। वहाँ देवता ही जा सकते हैं और कोई नहीं। इस दौरान पृथ्वी पर अमृत कलश से चार स्थानों पर गिरा—हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, और नासिक।

कुंभ महापर्व का संदेश
“पवित्रता, एकता और आत्मा की शुद्धि।”
जो लोग कुम्भ-पर्व पर स्नान करते हैं, वह देवलोकों को प्राप्त होते हैं और अमृतत्व-प्राप्त करने की योग्यता आ जाती है । जैसे निर्धन तथा धनवान सभी लोग आते हैं, वैसे ही देवता भी इस स्थान को नमस्कार करते हैं और भेष-बदल कर आते हैं। हजारों अश्वमेघयज्ञ, सैकड़ों वाजपेययज्ञ औत लाखों बार पृथ्वी-दान से भी, कुम्भ-स्नान का फल विशेष होता है ।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि कुंभ महापर्व न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की जीवंतता और एकता का प्रतीक है। इस पर्व पर लाखों श्रद्धालु बिना किसी भेदभाव के एकत्र होकर मोक्ष की कामना करते हैं। कुंभ केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि सनातन धर्म की गहराई और भारतीय सभ्यता की शक्ति का परिचायक है। कुम्भ महापर्व सामाजिक संगठन के साथ-साथ भौगोलिक एकता का प्रतीक भी है। यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि आत्मिक और सामाजिक परिमार्जन का अवसर है।

कुम्भ पर्व को आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति का सबसे बड़ा साधन माना गया है। इसमें स्नान करने से पापों का नाश होता है।अमृतत्व प्राप्ति की योग्यता मिलती है।यह यज्ञ, दान, और तप के फलों से भी श्रेष्ठ माना गया है।


“अश्वमेघसहस्र भ्यो वाजपेयशतादपि।
पृथिवीदानलक्षाच्च कुम्भयोगो विशिष्यते।।

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